विस्तार : सीक्रेट ऑफ डार्कनेस (भाग : 16)
"विस्तार!" नराक्ष ने चौंकते हुए कहा।
"यह एक विशुद्ध स्याह ऊर्जा है स्वामी। यदि हमनें इसे अपनी ओर कर लिया तो हमें विजयी होने से कोई नही रोक सकता।" वीर उत्साहित होकर बोला, परन्तु इस से नराक्ष के चेहरे के भाव नही बदले।
"..परन्तु एक विशुद्ध ऊर्जा के लिए हमें एक विशुद्ध हृदय का धारक चाहिए! क्या हमारी सेना में ऐसा कोई है जिसका हृदय कलुषित नही?" नराक्ष अपने क्रूर स्वर में बोला।
"यह तो सत्य है, हमने इस दृष्टिकोण से देखने का प्रयत्न नही किया। क्षमा महान नराक्ष!" वीर और साथी नराक्ष से क्षमा माँगने लगे।
"परन्तु मैं उस शक्ति को यहाँ तक लेकर ही आऊंगा।" कहता हुआ वीर वहां से निकल गया।
"असफलता मृत्यु को आमंत्रण देती है।" नराक्ष जोरदार ठहाका लगाते हुए बोला। "मृत्यु के बाद की तुम्हारी यह मृत्यु बहुत ही दर्दनाक होगी। जल्दी ही हमें डार्क फेयरीज़ और मैत्रा की संयुक्त शक्ति का काट लाकर दो।" अचानक नराक्ष के भाव बदले और उसके शैतानी चेहरे पर क्रूर मुस्कान नृत्य कर रही थी। सभी सैनिक डर के मारे वहां से बाहर निकल रहे थे जबकि सुपीरियर लीडर अब भी अपना सिर झुकाए हुए वहीं खड़ा था।
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हरिद्वार में गंगा के किनारे बहुत ही बड़ा आश्रम था। प्रकृति के स्नेह कुंज में ढका हुआ यह आश्रम जहां विभिन्न प्रकार की शिक्षा के लिए कई गुरुकुल स्थापित किये गए थे। यहाँ सभी आचार्य बड़े ही स्नेह भाव से विद्यार्थियों को ज्ञान के रोचक पाठ पठाया करते और विद्यार्थी भी बड़े स्नेह से ज्ञानार्जन किया करते। यहाँ ज्ञान-विज्ञान अर्थशास्त्र, अस्त्र एवं शस्त्र विद्या दी जाती थी।
एक दिन
संध्या होने को थी एक आचार्य आश्रम के बाग में टहल रहे थे, लम्बे श्वेत केश! जिन्हें रुद्राक्ष की माला द्वारा चोटी बनाकर बांधा गया था। लम्बी-घनी श्वेत दाढ़ी-मूछें, शरीर पर गेरुआ रंग के वस्त्र, पांव में खड़ाऊ एवं हाथ तथा गले में रुद्राक्ष की मालाएं पहने हुए, माथे पर त्रिपुंड लगा हुआ था। ये आश्रम के मुख्य आचार्य श्री सूरज शुक्ल थे। उनके मुखमंडल पर सदैव एक दिव्य तेज विराजमान होता था परन्तु आज उनके मुखमंडल पर चिंता के बादल छाए हुए थे। वहीं पास में ही कुछ युवक संध्या पूजा के लिए पुष्प चुन रहे थे। जैसे ही एक युवक ने अपने प्रिय आचार्य के माथे पर चिंता के भाव देखे उससे नही रहा गया। क्योंकि आचार्य श्री सूरज शुक्ल परम् विद्वान एवं हर प्रकार की समस्या का हल निकालने में निपुण थे, उनका इस प्रकार चिंतित होना उस युवक को किसी बड़े संकट का संकेत लग रहा था। वह अपने चुने हुए पुष्प सहयोगी मित्र को देकर उनके समक्ष पहुंच गया।
"क्या हुआ गुरुवर!" उस युवक ने हाथ जोड़कर प्रणाम करने के पश्चात चिंता का कारण पूछा। युवक छः फुट ऊँचा, चौड़े वक्ष वाला, गहरी काली आँखे, उसके काले केशों की चोटी बनी हुई थी जिसमे से कुछ केश कंधो पर लटक रहे थे। शरीर पर गेरुआ रंग का आवरण पहन रखा था, मुखमंडल पर दिव्य तेज विराजमान था।
"कुछ नही ब्रह्मेश! तुम बताओ संध्या पूजा की व्यवस्था हो गयी? सभी आचार्य एवं आश्रमवासी एकत्रित हुए अथवा नही!" आचार्य ने उल्टा उसी युवक से पूछ लिया।
"मैं तो यहीं पुष्प चुन रहा था गुरुदेव!" ब्रह्मेश में स्नेहिल स्वर में उत्तर दिया।
"परन्तु आप चिंतित क्यों हैं?" ब्रह्मेश के मन में कई विचित्र भाव उत्पन्न होने लगे थे, क्योंकि आचार्य सूरज कभी किसी समस्या से परेशान नही हुए, सबका डटकर सामना किया और अपने शिष्यों को भी यही पाठ पठाया। नीति, धर्म और ज्ञान में उनका कोई सानी न था। फिर उनके इस प्रकार अत्यधिक चिंतित होने कारण निश्चय ही किसी संकट का सूत्र है।
"तुम मेरे प्रिय एवं पुत्र समान शिष्य हो ब्रह्मेश! तुम्हें सदैव मेरे बिना कुछ बताये ही पता चल जाता है। परन्तु इस बार मैं स्वयं नही समझ पा रहा जो तुम्हें या अन्य किसी को कुछ समझाऊँ।" आचार्य सूरज गम्भीर स्वर में बोले। उनके स्वर में परेशानी स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रही थी।
"आपने मुझे उस दिन से पाला है गुरुवर जिस दिन मैंने जन्म लिया अन्यथा गंगा मैया की गोद में बहते बहते न जाने कहाँ चल जाता। आपके बिना तो ब्रह्मेश का अस्तित्व ही नही है।" ब्रह्मेश भावुक हो गया। आचार्य ने उसे अपने पास बैठने का इशारा किया वह आचार्य के पैरों के पास बैठ गया। आचार्य सूरज ब्रह्मेश के सोर को पितृवत सहलाने लगे।
"जिस रात तुम्हारा जन्म हुआ उस रात यहाँ भयंकर बाढ़ आई हुई थी, न जाने कैसे तुम किनारे पर जीवित स्थिति में पहुँच गए और मैंने तुम्हारी किलकारियां सुन ली। मैं नही जानता तुम्हारे माता पिता के साथ क्या हुआ परन्तु तुम हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो, इस आश्रम के लिए भी।" उसके सिर पर स्नेह से हाथ फिराते हुए आचार्य बोलें।
"तो फिर आप मुझे बताइये आपके चिंता का कारण क्या हैं?" ब्रह्मेश ने दुबारा अपना वही प्रश्न किया। "क्योंकि मैं मेरे आचार्य को जानता हूँ कोई भी समस्या उनके हृदय को इतना विचलित नही कर सकती जितना आप आज प्रतीत हो रहे हैं।"
"यह समस्या बड़ा ही विकट है पुत्र! इसको कैसे समझाएं यह समझ नही आ रहा परन्तु इसकी वजह से संसार को बहुत बड़ी क्षति उठानी पड़ सकती है ऐसा अंदेशा है।" आचार्य चिंतित स्वर में बोले।
"परन्तु इस स्थान की सुरक्षा तो स्वयं महाकाल करते हैं। यहां कोई समस्या कैसे आ सकती है और आपने ही तो कहा था कि महाकाल ही 'अंत' हैं।" ब्रह्मेश, आचार्य के वक्तव्य से हैरान होकर पूछा।
"यह सत्य है पुत्र! महाकाल अंत हैं! परन्तु अंत सदैव एक स्याह की ओर नही ले जाता। महाकाल समस्त पापों, दुःखो, अत्याचारों एवं लालसाओं के अंत हैं परन्तु उनकी ही सृजित की गई शक्ति, जिसे संसार काली शक्ति के नाम से जानता है इन सभी का स्त्रोत बनती हैं।" आचार्य, ब्रह्मेश को समझाते हुए बोले। "यह बात इस स्थान की नही अपितु सम्पूर्ण पृथ्वी की है। महाकाल के पुण्यस्थलों पर पुण्य की सृजित शक्तियों के साथ, विनाशक काली शक्तियां भी वास करती हैं। इन्ही काली शक्तियों ने संसार में भीषण तबाही मचा रखी है, जब देवताओं को इसका पता चला तो उन्होंने इसके स्त्रोत की खोज आरम्भ की। परन्तु आश्चर्य कई वर्षों के लगातार प्रयास के बाद भी उन्हें इस काली शक्ति के स्त्रोत स्थल का पता नही चल पाया है।" आचार्य, ब्रह्मेश को विस्तार से समझाने लगते हैं।
"परन्तु यह काली शक्ति क्या है आचार्य?" ब्रह्मेश को कई पापकारी शक्तियों का पता था परन्तु इस शक्ति के बारे में वह नही जानता था।
"तुम्हें रामायण और महाभारत जैसी कई महान पुस्तकों, भागवत, वेद-उपनिषद एवं पुराणों का ज्ञान है पुत्र! फिर इस प्रश्न का क्या औचित्य?" आचार्य ने हैरान होने पर भी बड़े प्रेम से पूछा।
"तो क्या यह…"
"हाँ! रावण को जिस शक्ति का मद हुआ और वह अपने अहंकार में चूर हो गया। दुर्योधन और दुशाशन ने जिस शक्ति के वशीभूत होकर पापकर्म में लिप्त हुए वही पाप-शक्ति, काली-शक्ति है। संसार के संतुलन हेतु महाकालेश्वर भोलेनाथ को विनाश का कार्य मिला। ब्रह्मा को सृजन एवं विष्णु को पालन का, इसलिए लिए ब्रह्मा को सृजक, विष्णु को पालक एवं शिव को अंत की संज्ञा प्राप्त हुई। यदि कोई व्यक्ति पापकर्म नही करेगा तो अंत होना दुष्कर है, अतः संसार के संतुलन को बनाये रखने के लिए शिव के द्वारा काली शक्ति का निर्माण हुआ, जिसने विनाशी प्रवृत्ति को जन्म दिया। इस कारण संसार का संतुलन सामान्य रहा परन्तु धीरे-धीरे कई लोगो ने विशेष प्रकार की काली शक्तियों को अर्जित करना आरम्भ कर दिया जिस कारण संसार का संतुलन बिगड़ने लगा और फिर संसार का संतुलन ठीक करने के लिए त्रिमूर्ति तक को आना पड़ा। इस बार भी एक ऐसी ही समस्या आन पड़ी है जिसका स्त्रोत कोई भी नही ढूढं पा रहा है।" ब्रह्मेश को विस्तार से के समझाते हुए आचार्य सूरज बोले।
"इसका तात्पर्य यह है कि इस बार भी काली शक्ति का प्रयोग अपने स्वार्थ में कर रहा है!" ब्रह्मेश अपना सिर उठाकर उनको देखते हुए बोला।
"काली शक्ति का प्रयोग स्वार्थ सिद्धि के लिए ही होता पुत्र! परन्तु इस बार किसी ने स्वयं को इस शक्ति के बल पर संसार के सभी नियमो को चुनौती दे दिया है।" आचार्य परेशान स्वर में बोले।
"इसका क्या तात्पर्य है आचार्य!" ब्रह्मेश को अब कुछ कुछ समझ आ रहा था।
"अन्य सभी शक्तियों की भांति काली शक्ति के देख-रेख के लिए विशिष्ट पद चुने गए थे। ये सभी पदाधिकारी महाकाल के चरणों में ही रहते थे ताकि उनके स्वयं के अंदर उस शक्ति का मद न आने पाए।" आचार्य ने कहा।
"उचित है परन्तु कदाचित यह चिंतित होने का कारण नही है।" ब्रह्मेश उनके मुख के भाव देखते हुए बोला।
"कारण है पुत्र! अभी देवताओ को सूचना प्राप्त हुई है कि काली शक्ति की संयोजक मैत्रा एवं आबंटक तथा नियंत्रक डार्क फेयरीज़ अपने जागृत अवस्था में गायब हो गयी हैं। उन्हें जगाने के लिए बद्रीनाथ के पास का एक पूरा गांव ही तबाह कर दिया गया है।" आचार्य दुःखी स्वर में बोले।
"क्या??" ब्रह्मेश चौंका। उसे इस बात पर विश्वास नही हो रहा था कि काली शक्ति, मैत्रा, डार्क फेयरीज़ जैसी शक्तियां वास्तव में धरती पर हैं।
"इन शक्तियों को जगाने के लिए उनके मानव रूप के भावनाओ से जुड़े हर एक को मारना पड़ता है तभी यह अपने पूर्ण रूप में आती हैं। परन्तु चिंता का मुख्य कारण यह है कि जिस शक्ति ने भी उन्हें जगाया है उसका कोई पता नही चल रहा है एयर यदि ये शक्तियां किसी के पास हैं तो अंधकार को सारी दुनिया पर राज करने से कोई नही रोक सकता।" आचार्य चिंतित स्वर में बोले।
"क्या देवताओं ने बद्रीनाथ के पास सभी क्षेत्रों में खोज किया?" ब्रह्मेश उत्सुकता से पूछा। आने वाली तबाही की सूचना ने उसे अंदर से कँपा दिया था।
"नही! क्योंकि वे मणिभद्र में नही जा सकते।" आचार्य ने जवाब दिया।
"परन्तु क्यों मणिभद्र तो देवभूमि है!" ब्रह्मेश चकित हुआ।
"यह केवल मानवों के लिए देवभूमि है पुत्र! परन्तु देवताओ का प्रवेश निषेध कर दिया गया है।" आचार्य ने उसे समझाया।
"परन्तु क्यों? वहां तो विभिन्न देवताओ का वास है!" आचार्य का यह उत्तर ब्रह्मेश को उलझा रहा था।
"था! अब नही है। महाकाल ने यह स्थान अपनी सृजित काली शक्ति को दे दिया है। इसलिए वहां छः महीने तक कोई नही जा सकता।" आचार्य ने दो टूक जवाब दिया।
"एक क्षण, आपने क्या कहा? काली शक्ति! अर्थात वह मणिभद्र में ही है और यह घटना भी तो मणिभद्र के पास में हुई है।" ब्रह्मेश उछलते हुए बोला जैसे उसे कोई खजाना मिल गया हो।
"यह बात हमारे मस्तिष्क में क्यों नही आई!" आचार्य ने अपना माथा पीटा और देवताओ से मानसिक सम्पर्क करने लगे।
"आपने कहा वहां देवता नही जा सकते किंतु मनुष्य तो जा सकते हैं न?" ब्रह्मेश ने पूछा।
"क्या तात्पर्य है तुम्हारा?" आचार्य उसकी मंशा भाँपकर बोले।
"इस खोज में, मैं जाऊंगा।" ब्रह्मेश ने सपाट उत्तर दिया।
"परन्तु पुत्र…!"
"मैं पहले ही सबकुछ खो चुका हूँ गुरुदेव! अब मेरा कोई नही है। आप ही तो कहते हैं न कि मैं भविष्य के किसी महान कार्य को करने के लिए चुना जाऊंगा। कदाचित वह अवसर यही हो।" ब्रह्मेश विनती भाव में मुस्कुराकर बोला।
"तुम्हें कौन रोक सकता है भला! यदि तुम्हारी इच्छा यही है तो जाओ परन्तु आश्रम से तुम्हारे साथ कोई भी नही जाएगा।" आचार्य ब्रह्मेश को खोना नही चाहते थे, उससे उन्हें लगाव महसूस होता था। उसका इस प्रकार कहना कि 'अब उसका कोई नही है' उन्हें चुभ गया।
"सन्ध्या पूजन का समय हो गया गुरुदेव!" एक शिष्य आते ही उन्हें प्रणाम कर बोला। आचार्य सूरज शुल्क अपनी दाढ़ी को हाथ से खिंचते, ब्रह्मेश को कातर निगाहों से देखते हुए वहां से चले गए। ब्रह्मेश मन में अपराध भाव लिए उठा परन्तु अब वह अपना निश्चय नही बदल सकता था। सुबह होते ही उसे मणिभद्र की ओर निकलना था, वह उठकर शीघ्रता से दौड़ते हुए सन्ध्या पूजन में शामिल होने चला गया।
क्रमशः...
Kaushalya Rani
25-Nov-2021 10:13 PM
Very nice
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Farhat
25-Nov-2021 06:32 PM
Good
Reply
Barsha🖤👑
25-Nov-2021 06:16 PM
बहुत ही रोचक कहानी
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